सिंगोली । जो ज्ञान ध्यान में तत्पर रहते हैं, आरम्भ और परिग्रह से रहित है वे साधु प्रशंसनीय कहे जाते हैं। वे ही गुरु पद को प्राप्त होते है। दिगम्बर जैन श्रमण परम्परा में साधु नग्न अवस्था में रहते हैं। वे यथाजात बालक के समान निर्विकार होते हैं। मन के विकारों के छिपाने के लिए वस्त्र धारण करने पड़ते हैं यह बात नगर में चातुर्मास हेतु विराजमान मुनिश्री सुप्रभ सागर जी महाराज ने 31 अक्टूबर मंगलवार को प्रातः काल धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि दिगम्बर भ्रमण बाह्य अन्तरंग दोनों से नग्न होते हैं। मन के विकारों से रहित और तन की विकृति से रहित होते हैं। यदि कोई साधु. वेष धारण करके भी मन में विकार करते है, मन में हिंसादि पाप के परिणाम से युक्त है, वे मात्र साधु का वेष धारण कर स्वांग रच रहे हैं। साधु जो समता धारण करने वाला होता है। सर्वधर्म सहिष्णुता साधु का लक्ष्ण है। असहिष्णुता और अधीरता के साथ साधुपन नहीं बन सकता है। साधु को अपने साधना से ही मतलब होना चाहिए, उन्हे राजनीति से दूर होना चाहिए। यदि साधु राजनीति करने लगे, तो साधु कैसा साधु धर्मनीति के अनुसार चलने वाला होता है। आज की राजनीति धर्मरहित है, इसलिए भ्रष्टाचार, अन्याय, असहिष्णुता, अधीरता, जैसे दुर्गुण राजनेताओं में वृद्धि को प्राप्त करते है। साधु किसी धर्म का पालन करने वाला हो, यदि वह किसी अन्य साधु या किसी धर्म पर टिप्पणी करता है, तो उसके बाद साधुपने पर प्रश्नचिन्ह है साधुता का अर्थ सज्जनता भी होता है जो वेष धारण कर सज्जनता खो रहा है वह साधुता की योग्यता को समाप्त कर रहा है।इस अवसर पर सभी समाजजन उपस्थित थे
मन के विकारों के छिपाने के लिए वस्त्र धारण करने पड़ते हैं मुनिश्री सुप्रभ सागर
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